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मज़ा था हम को जो लैला से दू-ब-दू करते - ज़ौक़ कविता - Darsaal

मज़ा था हम को जो लैला से दू-ब-दू करते

मज़ा था हम को जो लैला से दू-ब-दू करते

कि गुल तुम्हारी बहारों में आरज़ू करते

मज़े जो मौत के आशिक़ बयाँ कभू करते

मसीह ओ ख़िज़्र भी मरने की आरज़ू करते

ग़रज़ थी क्या तिरे तीरों को आब-ए-पैकाँ से

मगर ज़ियारत-ए-दिल क्यूँ कि बे-वज़ू करते

अजब न था कि ज़माने के इंक़िलाब से हम

तयम्मुम आब से और ख़ाक से वज़ू करते

अगर ये जानते चुन चुन के हम को तोड़ेंगे

तो गुल कभी न तमन्ना-ए-रंग-ओ-बू करते

समझ ये दार-ओ-रसन तार-ओ-सोज़न ऐ मंसूर

कि चाक-ए-पर्दा हक़ीक़त का हैं रफ़ू करते

यक़ीं है सुब्ह-ए-क़यामत को भी सुबुही-कश

उठेंगे ख़्वाब से साक़ी सुबू सुबू करते

न रहती यूसुफ़-ए-कनआँ की गर्मी-ए-बाज़ार

मुक़ाबले में जो हम तुझ को रू-ब-रू करते

चमन भी देखते गुलज़ार-ए-आरज़ू की बहार

तुम्हारी बाद-ए-बहारी में आरज़ू करते

सुराग़ उम्र-ए-गुज़िश्ता का कीजिए गर 'ज़ौक़'

तमाम उम्र गुज़र जाए जुस्तुजू करते

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In Hindi By Famous Poet Sheikh Ibrahim Zauq. is written by Sheikh Ibrahim Zauq. Complete Poem in Hindi by Sheikh Ibrahim Zauq. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.