Ghazals of Sheikh Ibrahim Zauq (page 1)

Ghazals of Sheikh Ibrahim Zauq (page 1)
नामज़ौक़
अंग्रेज़ी नामSheikh Ibrahim Zauq
जन्म की तारीख1790
मौत की तिथि1854
जन्म स्थानDelhi

ज़ख़्मी हूँ तिरे नावक-ए-दुज़-दीदा-नज़र से

ये इक़ामत हमें पैग़ाम-ए-सफ़र देती है

वो कौन है जो मुझ पे तअस्सुफ़ नहीं करता

वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें

उस संग-ए-आस्ताँ पे जबीन-ए-नियाज़ है

तेरे आफ़त-ज़दा जिन दश्तों में अड़ जाते हैं

सब को दुनिया की हवस ख़्वार लिए फिरती है

रिंद-ए-ख़राब-हाल को ज़ाहिद न छेड़ तू

क़ुफ़्ल-ए-सद-ख़ाना-ए-दिल आया जो तू टूट गए

क़स्द जब तेरी ज़ियारत का कभू करते हैं

नीमचा यार ने जिस वक़्त बग़ल में मारा

निगह का वार था दिल पर फड़कने जान लगी

नाला इस शोर से क्यूँ मेरा दुहाई देता

नहीं सबात बुलंदी-ए-इज्ज़-ओ-शाँ के लिए

न खींचो आशिक़-तिश्ना-जिगर के तीर पहलू से

न करता ज़ब्त मैं नाला तो फिर ऐसा धुआँ होता

मिरे सीने से तेरा तीर जब ऐ जंग-जू निकला

मज़ा था हम को जो लैला से दू-ब-दू करते

मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे

मार कर तीर जो वो दिलबर-ए-जानी माँगे

महफ़िल में शोर-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना-ए-मुल हुआ

लेते ही दिल जो आशिक़-ए-दिल-सोज़ का चले

लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले

क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले

क्या आए तुम जो आए घड़ी दो घड़ी के बाद

कोई कमर को तिरी कुछ जो हो कमर तो कहे

कोई इन तंग-दहानों से मोहब्बत न करे

किसी बेकस को ऐ बेदाद गर मारा तो क्या मारा

ख़ूब रोका शिकायतों से मुझे

ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े

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