मुझे भी लम्हा-ए-हिजरत ने कर दिया तक़्सीम
निगाह घर की तरफ़ है क़दम सफ़र की तरफ़
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ज़हर-ए-शब वीरान बिस्तर ऐ ख़ुदा
उस की बातें क्या करते हो वो लफ़्ज़ों का बानी था
कोई साया न कोई हम-साया
दिल में शोला था सो आँखों में नमी बनता गया
हमारे दर्द की जानिब इशारा करती हैं
मैं ने भी देखने की हद कर दी
मेरी नज़र का मुद्दआ उस के सिवा कुछ भी नहीं
मस्लहत के ज़ावियों से किस क़दर अंजान है
नसब ये है कि वो दुश्मन को कम-नसब न कहे
कब चला जाता है 'शहपर' कोई आ के सामने
नींद उजड़ी तो निगाहों में मनाज़िर क्या हैं
चुप गुज़र जाता हूँ हैरान भी हो जाता हूँ