दूसरों के ज़ख़्म बुन कर ओढ़ना आसाँ नहीं
सब क़बाएँ हेच हैं मेरी रिदा के सामने
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हँसते हुए हुरूफ़ में जिस को अदा करूँ
कब चला जाता है 'शहपर' कोई आ के सामने
हम ज़िंदगी-शनास थे सब से जुदा रहे
नसब ये है कि वो दुश्मन को कम-नसब न कहे
सुख़न किया जो ख़मोशी से शायरी जागी
मेरी नज़र का मुद्दआ उस के सिवा कुछ भी नहीं
उस की बातें क्या करते हो वो लफ़्ज़ों का बानी था
ख़ुद को ख़ुद पर ही जो इफ़्शा कभी करना पड़ जाए
चुप गुज़र जाता हूँ हैरान भी हो जाता हूँ
मैं ने भी देखने की हद कर दी
मुझे भी लम्हा-ए-हिजरत ने कर दिया तक़्सीम
ज़हर-ए-शब वीरान बिस्तर ऐ ख़ुदा