था ग़ैर का जो रंज-ए-जुदाई तमाम शब
था ग़ैर का जो रंज-ए-जुदाई तमाम शब
नींद उन को मेरे साथ न आई तमाम शब
शिकवा मुझे न हो जो मुकाफ़ात हद से हो
वाँ सुल्ह एक दम है लड़ाई तमाम शब
ये डर रहा कि सोते न पाएँ कहीं मुझे
वादे की रात नींद न आई तमाम शब
सच तो ये है कि बोल गए अक्सर अहल-ए-शौक़
बुलबुल ने की जो नाला-सराई तमाम शब
दम भर भी उम्र खोई जो ज़िक्र-ए-रक़ीब में
कैफ़ियत-ए-विसाल न पाई तमाम शब
थोड़ा सा मेरे हाल पे फ़रमा कर इल्तिफ़ात
करते रहे वो अपनी बड़ाई तमाम शब
वो आह तार ओ पौद हो जिस का हवा-ए-ज़ुल्फ़
करती है अंबरी ओ सबाई तमाम शब
वो सुब्ह जल्वा जल्वागर-ए-बाग़ था जो रात
मुर्ग़-ए-सहर ने धूम मचाई तमाम शब
अफ़्साने से बिगाड़ है अन-बन है ख़्वाब से
है फ़िक्र-ए-वस्ल ओ ज़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब
जिस की शमीम-ए-ज़ुल्फ़ पे मैं ग़श हूँ 'शेफ़्ता'
उस ने शमीम-ए-ज़ुल्फ़ सुँघाई तमाम शब
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