मैं वस्ल में भी 'शेफ़्ता' हसरत-तलब रहा
मैं वस्ल में भी 'शेफ़्ता' हसरत-तलब रहा
गुस्ताख़ियों में भी मुझे पास-ए-अदब रहा
तग़ईर वज़्अ की है इशारा विदा का
यानी जफ़ा पे ख़ूगर-ए-अल्ताफ़ कब रहा
मैं रश्क से चला तो कहा बे-सबब चला
इस पर जो रह गया तो कहा बे-सबब रहा
दम भर भी ग़ैर पर निगह-ए-लुत्फ़ क्यूँ है अब
इक उम्र मैं सितम-कश-ए-चश्म-ए-ग़ज़ब रहा
था शब तो आह में भी असर जज़्ब-ए-दिल में भी
क्यूँकर न आए 'शेफ़्ता' मुझ को अजब रहा
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