इधर माइल कहाँ वो मह-जबीं है
इधर माइल कहाँ वो मह-जबीं है
फ़लक को मुझ से क्यूँ पुरख़ाश-ओ-कीं है
न देखा अपने बिस्मिल का तमाशा
क़रीब आ कर वो कितना दूर-बीं है
ये अच्छा है तो अच्छा ग़ैर को भी
सताओ और पूछो क्यूँ ग़मीं है
हमें सूरत दिखाए क्या तमन्ना
कि आशिक़ जिस के हैं पर्दा-नशीं है
ये मुझ से शिकवा है अल्लाह रे शोख़ी
कि मेरे ग़म से तू अंदोह-गीं है
ये कैसा तफ़रक़ा हिज्राँ ने डाला
कहें क्या हम कहीं हैं दिल कहीं है
न पूछो 'शेफ़्ता' का हाल साहब
ये हालत है कि अपने में नहीं है
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