मिरा ज़मीर बहुत है मुझे सज़ा के लिए
तू दोस्त है तो नसीहत न कर ख़ुदा के लिए
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न महफ़िल ऐसी होती है न ख़ल्वत ऐसी होती है
मैं लौट आऊँ कहीं तू ये सोचता ही न हो
बे-नंग-ओ-नाम
किताब-ए-हुस्न है तू मिल खुली किताब की तरह
सुख़न राज़-ए-नशात-ओ-ग़म का पर्दा हो ही जाता है
उस का होना भी भरी बज़्म में है वज्ह-ए-सुकूँ
अजनबी
साँसों में बसे हो तुम आँखों में छुपा लूँगा
वो कौन है जिस की वहशत पर सुनते हैं कि जंगल रोता है
संग-आबाद की एक दुकाँ
जिन ज़ख़्मों पर था नाज़ हमें वो ज़ख़्म भी भरते जाते हैं
सन कर बयान-ए-दर्द कलेजा दहल न जाए