किताब-ए-हुस्न है तू मिल खुली किताब की तरह
यही किताब तो मर मर के मैं ने अज़बर की
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बे-नंग-ओ-नाम
एक रात आप ने उम्मीद पे क्या रक्खा है
मैं तो चुप था मगर उस ने भी सुनाने न दिया
आगे आगे कोई मिशअल सी लिए चलता था
सुख़न राज़-ए-नशात-ओ-ग़म का पर्दा हो ही जाता है
कोई तो आ के रुला दे कि हँस रहा हूँ मैं
ख़ुद अपना हाल दिल-ए-मुब्तला से कुछ न कहा
शिकन शिकन तिरी यादें हैं मेरे बिस्तर की
न महफ़िल ऐसी होती है न ख़ल्वत ऐसी होती है
सँभला नहीं दिल तुझ से बिछड़ कर कई दिन तक
ज़िंदगी हम से तिरे नाज़ उठाए न गए