सन कर बयान-ए-दर्द कलेजा दहल न जाए
सन कर बयान-ए-दर्द कलेजा दहल न जाए
दुनिया से डर रहे थे कि दुनिया बदल न जाए
हर महफ़िल-ए-नशात से फिरता हूँ दूर दूर
क्या एहतियात है कि तिरा ग़म बहल न जाए
तो आज तक तो है मिरी नज़रों में हू-ब-हू
दुनिया बदल गई तिरी सूरत बदल न जाए
हैं ताक़-ए-आरज़ू पे खिलौने सजे हुए
मायूस आरज़ू की तबीअ'त मचल न जाए
तिश्ना-लबी कहीं मुझे ग़र्क़ाब कर न दे
थोड़ी सी रौशनी के लिए घर ही जल न जाए
इक ख़ौफ़ है कि मंज़िल-ए-निस्याँ क़रीब है
तू वादी-ए-ख़याल से आगे निकल न जाए
रोऊँ कहाँ कि राहत-ए-ख़ल्वत नहीं है 'शाज़'
हँसने पे भी ये शर्त कि आँसू निकल न जाए
(557) Peoples Rate This