सँभला नहीं दिल तुझ से बिछड़ कर कई दिन तक
सँभला नहीं दिल तुझ से बिछड़ कर कई दिन तक
मैं आईना था बन गया पत्थर कई दिन तक
क्या चीज़ थी हम रख के कहीं भूल गए हैं
वो चीज़ कि याद आई न अक्सर कई दिन तक
ऐ शाख़-ए-वफ़ा फिर वो परिंदा नहीं लौटा
मैं घर में था निकला नहीं बाहर कई दिन तक
वो बोझ कि थी जिस से मिरे सर की बुलंदी
वो बोझ गिरा उठ न सका सर कई दिन तक
हम ने भी बहुत उस को भुलाने की दुआ की
हम ने भी बहुत देखा है रो कर कई दिन तक
कहते हैं कि आईना भी देखा नहीं उस ने
सुनते हैं कि पहना नहीं ज़ेवर कई दिन तक
हम तान के सोए थे कि क्यूँ आएगा वो 'शाज़'
देता रहा दस्तक वो बराबर कई दिन तक
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