मैं तो चुप था मगर उस ने भी सुनाने न दिया
मैं तो चुप था मगर उस ने भी सुनाने न दिया
ग़म-ए-दुनिया का कोई ज़िक्र तक आने न दिया
उस का ज़हराबा-ए-पैकर है मिरी रग रग में
उस की यादों ने मगर हाथ लगाने न दिया
उस ने दूरी की भी हद खींच रखी है गोया
कुछ ख़यालात से आगे मुझे जाने न दिया
बादबाँ अपने सफ़ीने का ज़रा सी लेते
वक़्त इतना भी ज़माने की हवा ने न दिया
वही इनआम ज़माने से जिसे मिलना था
लोग मासूम हैं कहते हैं ख़ुदा ने न दिया
कोई फ़रियाद करे गूँज मिरे दिल से उठे
मौक़ा-ए-दर्द कभी हाथ से जाने न दिया
'शाज़' इक दर्द से सौ दर्द के रिश्ते निकले
किन मसाइब ने उसे जी से भुलाने न दिया
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