आबला-पाई से वीराना महक जाता है
आबला-पाई से वीराना महक जाता है
कौन फूलों से मिरा रास्ता ढक जाता है
मस्लहत कहती है वो आए तो क्यूँ आए यहाँ
दिल का ये हाल हर आहट पे धड़क जाता है
क्या सर-ए-शाम न लौटूँगा नशेमन की तरफ़
क्या अँधेरा हो तो जुगनू भी भटक जाता है
एक दीवाना भटकता है बगूला बन कर
एक आहू किसी वादी में ठिठक जाता है
कोई आवाज़ कहीं गूँज के रह जाती है
कोई आँसू किसी आरिज़ पे ढलक जाता है
क़ाफ़िला उम्र का पैहम सफ़र-आमादा सही
शजर-ए-साया-फ़गन देख के थक जाता है
'शाज़' इस कोशिश-ए-तमकीं पे बहुत नाज़ न कर
ये चराग़-ए-तह-ए-दामाँ भी भड़क जाता है
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