तेरी सी भी आफ़त कोई ऐ सोज़िश-ए-तब है
तेरी सी भी आफ़त कोई ऐ सोज़िश-ए-तब है
इक आग है सो इतनी जलन आग में कब है
माना कि तुम उम्मीद-ए-वफ़ा के नहीं क़ाइल
फिर क्या मिरे जीने का कोई और सबब है
ख़ुश हूँ तिरे कीने से कि शिरकत से हूँ महफ़ूज़
जितना तिरे दिल में है वो मेरे लिए सब है
हाजत नहीं कुछ और पस-ए-मर्ग मगर एक
या'नी मुझे दरकार तिरी जुम्बिश-ए-लब है
ज़िंदा रहूँ क्यूँ मैं कि ज़बाँ उन से हो गुस्ताख़
मरने में ख़मोशी है ख़मोशी में अदब है
हो हिज्र तो फिर गोर में और घर में है क्या फ़र्क़
जो गोर की ज़ुल्मत है वही हिज्र की शब है
इज़हार-ए-वफ़ा है तो किस उम्मीद पे ऐ 'शौक़'
तू दाद-तलब उस से कि बेदाद-तलब है
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