हुई या मुझ से नफ़रत या कुछ इस में किब्र-ओ-नाज़ आया
हुई या मुझ से नफ़रत या कुछ इस में किब्र-ओ-नाज़ आया
कभी वो मुस्कुरा देता था अब इस से भी बाज़ आया
नया फ़ित्ना जो निकला कोई तो ता'लीम दिलवाने
ज़माना ले के उस को पेश-ए-चश्म-ए-फ़ित्ना-साज़ आया
बदलती रहती है हर दम मिरी शक्ल इस क़दर ग़म से
गया जब मैं तो समझा वो नया इक इश्क़-बाज़ आया
हुई दिल की ख़बर दिल को कि वो बद-ज़न हुआ वर्ना
न टपके अश्क आँखों से न मुँह तक हर्फ़-ए-राज़ आया
बचाया दर्द से मजबूर कर के तर्क-ए-उल्फ़त पर
वो आया दिल-शिकन बन कर तो गोया दिल-नवाज़ आया
तिरे हाथों शिकस्त-ए-दिल में लुत्फ़-ए-दिल-नवाज़ी है
ये क्या कम है कि पहलू तक तिरा दस्त-ए-दराज़ आया
मगर ताज़ा सितम को वो मिरी सेहत का ख़्वाहाँ है
कि कल ज़ख़्मी किया और आज बन कर चारासाज़ आया
ग़ुबार-ए-राह ने आँखें मिलाने दीं न दिल भर के
वो मेरे घर जो आया ले के चश्म-ए-नीम-बाज़ आया
हुआ है 'शौक़' मय-ख़ाने में दाख़िल किस तकल्लुफ़ से
बिछाने के लिए मस्जिद से ले कर जा-नमाज़ आया
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