मेरी मायूस जवानी तुझे रास आ न सकी
सालहा-साल उम्मीदों के समर मिल न सके
बारहा मौज-ए-सबा पास से गुज़री लेकिन
तेरे होंटों पे तबस्सुम के कँवल खिल न सके
Gulzar
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निगाह को भी मयस्सर है दिल की गहराई
किसी की बाज़ी कैसी घात
शरीक-ए-दर्द नहीं जब कोई तो ऐ 'शौकत'
आरज़ू
देता रहा फ़रेब-ए-मुसलसल कोई मगर
हवाएँ रोक न पाईं भँवर डुबो न सके
अपने पराए थक गए कह कर हर कोशिश बेकार रही
हर बुरे वक़्त में काम आया था
शुऊ'र-ए-कैफ़-ओ-ख़ुशी है ज़रा ठहर जाओ
अधूरा हो के हूँ कितना मुकम्मल
जुरअत हो तो दुनिया से बग़ावत कर लो
इस फ़ैसले पे लुट गई दुनिया-ए-ए'तिबार