शरीक-ए-दर्द नहीं जब कोई तो ऐ 'शौकत'
ख़ुद अपनी ज़ात की बेचारगी ग़नीमत है
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तुम ही अब वो नहीं रहे वर्ना
ग़म की अँधेरी राहों में तो तुम भी नहीं काम आओ हो
ख़्वाबों के तिलिस्मात से हम गुज़रे हैं
ये कैसी बे-क़रारी सुनने वालों के दिलों में है
अहद-ए-आग़ाज़-ए-तमन्ना भी मुझे याद नहीं
ना-शनासान-ए-मुहब्बत का गिला क्या कि यहाँ
क्या बढ़ेगा वो तसव्वुर की हदों से आगे
क़रीब से उसे देखो तो वो भी तन्हा है
हौसले की कमी से डरता हूँ
यास
उस की हँसी तुम क्या समझो
एक वहशत है रहगुज़ारों में