फूँक कर सारा चमन जब वो शरीक-ए-ग़म हुए
उन को इस आलम में भी ग़म-आश्ना कहना पड़ा
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क़रीब से उसे देखो तो वो भी तन्हा है
हसरतें बन कर निगाहों से बरस जाएँगे हम
यादों की मैं बारात लिए आया हूँ
आईने को ख़ुद तोड़ रहा हो जैसे
हँसते हँसते बहे हैं आँसू भी
जब मस्लहत-ए-वक़्त से गर्दन को झुका कर
निगाह को भी मयस्सर है दिल की गहराई
रात तारों से जब सँवरती है
अधूरा हो के हूँ कितना मुकम्मल
मौज-ए-तूफ़ाँ से निकल कर भी सलामत न रहे
हौसले की कमी से डरता हूँ