निगाह को भी मयस्सर है दिल की गहराई
ये तर्जुमान-ए-मोहब्बत है बे-ज़बाँ न कहो
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अपने पराए थक गए कह कर हर कोशिश बेकार रही
ना-शनासान-ए-मुहब्बत का गिला क्या कि यहाँ
यास
देता रहा फ़रेब-ए-मुसलसल कोई मगर
कुछ तो फ़ितरत से मिली दानाई
यादों की मैं बारात लिए आया हूँ
बर्क़ की शो'ला-मिज़ाजी है मुसल्लम लेकिन
औरत
अधूरा हो के हूँ कितना मुकम्मल
क्या बढ़ेगा वो तसव्वुर की हदों से आगे
वो आँखें जो अब अजनबी हो गई हैं