कुछ तो फ़ितरत से मिली दानाई
कुछ मयस्सर हुई नादानों से
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यादों की मैं बारात लिए आया हूँ
क्या बढ़ेगा वो तसव्वुर की हदों से आगे
ए'तिबार
बर्क़ की शो'ला-मिज़ाजी है मुसल्लम लेकिन
देता रहा फ़रेब-ए-मुसलसल कोई मगर
ज़िंदगी से कोई मानूस तो हो ले पहले
उस की हँसी तुम क्या समझो
हाए उस मिन्नत-कश-ए-वहम-ओ-गुमाँ की जुस्तुजू
मेरे महबूब मिरे दिल को जलाया न करो
हदूद-ए-जिस्म से आगे बढ़े तो ये देखा
मायूसी
ख़्वाबों के तिलिस्मात से हम गुज़रे हैं