इस फ़ैसले पे लुट गई दुनिया-ए-ए'तिबार
साबित हुआ गुनाह गुनहगार के बग़ैर
Mir Taqi Mir
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Ahmad Faraz
Allama Iqbal
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
Anwar Masood
Jaun Eliya
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कुछ तो फ़ितरत से मिली दानाई
हदूद-ए-जिस्म से आगे बढ़े तो ये देखा
ज़िंदगी का सफ़र ख़त्म होता रहा तुम मुझे दम-ब-दम याद आते रहे
वो आँखें जो अब अजनबी हो गई हैं
हाए उस मिन्नत-कश-ए-वहम-ओ-गुमाँ की जुस्तुजू
निगाह को भी मयस्सर है दिल की गहराई
उस के नाम
ग़म की अँधेरी राहों में तो तुम भी नहीं काम आओ हो
जी में आता है कि 'शौकत' किसी चिंगारी को
हवाएँ रोक न पाईं भँवर डुबो न सके
जब मस्लहत-ए-वक़्त से गर्दन को झुका कर
हसरतें बन कर निगाहों से बरस जाएँगे हम