हुस्न-ए-इख़्लास ही नहीं वर्ना
आदमी आदमी तो आज भी है
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ग़म की अँधेरी राहों में तो तुम भी नहीं काम आओ हो
हर बुरे वक़्त में काम आया था
अपने पराए थक गए कह कर हर कोशिश बेकार रही
ये कैसी बे-क़रारी सुनने वालों के दिलों में है
शरीक-ए-दर्द नहीं जब कोई तो ऐ 'शौकत'
रात इक नादार का घर जल गया था और बस
ना-शनासान-ए-मुहब्बत का गिला क्या कि यहाँ
ख़ुद वो करते हैं जिसे अहद-ए-वफ़ा से ताबीर
ऐ इंक़लाब-ए-नौ तिरी रफ़्तार देख कर
फिर कोई जश्न मनाओ कि हँसी आ जाए
हसरत
जब मस्लहत-ए-वक़्त से गर्दन को झुका कर