हदूद-ए-जिस्म से आगे बढ़े तो ये देखा
कि तिश्नगी थी बरहना तिरी अदाओं तक
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इस फ़ैसले पे लुट गई दुनिया-ए-ए'तिबार
फूँक कर सारा चमन जब वो शरीक-ए-ग़म हुए
निगाह को भी मयस्सर है दिल की गहराई
अपने पराए थक गए कह कर हर कोशिश बेकार रही
जुरअत हो तो दुनिया से बग़ावत कर लो
शुऊ'र-ए-कैफ़-ओ-ख़ुशी है ज़रा ठहर जाओ
ये कैसी बे-क़रारी सुनने वालों के दिलों में है
रात तारों से जब सँवरती है
ऐ इंक़लाब-ए-नौ तिरी रफ़्तार देख कर
क्या बढ़ेगा वो तसव्वुर की हदों से आगे
उन की निगाह-ए-नाज़ की गर्दिश के साथ साथ
हवाएँ रोक न पाईं भँवर डुबो न सके