हवाएँ रोक न पाईं भँवर डुबो न सके
वो एक नाव जो अज़्म-ए-सफ़र के बा'द चली
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याद
ज़िंदगी का सफ़र ख़त्म होता रहा तुम मुझे दम-ब-दम याद आते रहे
ना-शनासान-ए-मुहब्बत का गिला क्या कि यहाँ
एक वहशत है रहगुज़ारों में
हसरतें बन कर निगाहों से बरस जाएँगे हम
हौसले की कमी से डरता हूँ
अधूरा हो के हूँ कितना मुकम्मल
ये कैसी बे-क़रारी सुनने वालों के दिलों में है
मौज-ए-तूफ़ाँ से निकल कर भी सलामत न रहे
अपने पराए थक गए कह कर हर कोशिश बेकार रही
अगर तुम जल भी जाते तो न होता ख़त्म अफ़्साना
उस की हँसी तुम क्या समझो