देता रहा फ़रेब-ए-मुसलसल कोई मगर
इम्कान-ए-इल्तिफ़ात से हम खेलते रहे
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एहसास की लज़्ज़त के क़रीब आ जाओ
ना-शनासान-ए-मुहब्बत का गिला क्या कि यहाँ
यास
ग़म की अँधेरी राहों में तो तुम भी नहीं काम आओ हो
उस की हँसी तुम क्या समझो
फूँक कर सारा चमन जब वो शरीक-ए-ग़म हुए
एक वहशत है रहगुज़ारों में
नज़र-नवाज़ नज़ारों की याद आती है
उड़ता हुआ बादल कहीं हाथ आया है
हौसले की कमी से डरता हूँ
दिल पर असर-ए-ख़्वाब है हल्का हल्का
होश वाले तो उलझते ही रहे