बर्क़ की शो'ला-मिज़ाजी है मुसल्लम लेकिन
मैं ने देखा मिरे साए से ये कतराती है
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नज़र-नवाज़ नज़ारों की याद आती है
जी में आता है कि 'शौकत' किसी चिंगारी को
क़रीब से उसे देखो तो वो भी तन्हा है
किसी की बाज़ी कैसी घात
उन की निगाह-ए-नाज़ की गर्दिश के साथ साथ
एहसास की लज़्ज़त के क़रीब आ जाओ
ऐ इंक़लाब-ए-नौ तिरी रफ़्तार देख कर
शुऊ'र-ए-कैफ़-ओ-ख़ुशी है ज़रा ठहर जाओ
हर बुरे वक़्त में काम आया था
उड़ता हुआ बादल कहीं हाथ आया है
देता रहा फ़रेब-ए-मुसलसल कोई मगर
जब मस्लहत-ए-वक़्त से गर्दन को झुका कर