ऐ इंक़लाब-ए-नौ तिरी रफ़्तार देख कर
ख़ुद हम भी सोचते हैं कि अब तक कहाँ रहे
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अगर तुम जल भी जाते तो न होता ख़त्म अफ़्साना
मायूसी
ज़िंदगी का सफ़र ख़त्म होता रहा तुम मुझे दम-ब-दम याद आते रहे
हर बुरे वक़्त में काम आया था
देता रहा फ़रेब-ए-मुसलसल कोई मगर
निगाह को भी मयस्सर है दिल की गहराई
दिल पर असर-ए-ख़्वाब है हल्का हल्का
जब मस्लहत-ए-वक़्त से गर्दन को झुका कर
'शौकत' वो आज आप को पहचान तो गए
हाए उस मिन्नत-कश-ए-वहम-ओ-गुमाँ की जुस्तुजू
ख़ुद वो करते हैं जिसे अहद-ए-वफ़ा से ताबीर