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ये हवेली गिर रही है - शरवण कुमार वर्मा कविता - Darsaal

ये हवेली गिर रही है

गुम्बदों को धूप की लम्बी ज़बानें खा गई हैं

सहन में ज़ंजीर से जकड़े हुए ख़ारिश-ज़दा

बीमार कुत्ते

भौंकते हैं

और छप्पर उड़ रहे हैं

सर्द-आवर तारीक कमरों में बिछे क़ालीन

मलबा सूँघते हैं

ऊन और रेशम के रंगीं फूल

मुरझाने लगे हैं

और अब ख़ूँ भी नहीं है

जिस से सींचा जाए उन को

इक कबूतर इस हवेली से खुली नीली फ़ज़ा में

उड़ गया है

और कुत्ते भौंकते हैं

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