इबादत के वक़्त में हिस्सा
इबादत में
ख़ुदा के वक़्त में हिस्से की ख़्वाहिश
न जाने क्यूँ सभी यादों में होती है
खड़ा रहता हूँ मैं बस हाथ बाँधे इक किनारे से
मगर वो क़ाफ़िला यादों का जैसे ख़त्म होने में नहीं आता
कहाँ सज्दा करूँ मैं?
भूल जाता हूँ कि रकअत कौन सी है
मुसीबत है
गवारा ही नहीं उन को मिरा मस्जिद में आना
मिरा जन्नत में जाना
ज़रा सी देर की तो बात थी
दो फ़र्ज़ पढ़ने थे
और इस के बाद मैं ख़ाली ही ख़ाली था
मगर इन हासिदों को कौन समझाए
कहीं ये आज भी शायद
मुझे खोने से डरती हैं
इबादत से ख़ुदा की
ये जलन महसूस करती हैं
इन्हें समझाए कोई
(484) Peoples Rate This