फ़क़त हिस्से की ख़ातिर
फ़क़त हिस्से की ख़ातिर
कट गई ये ज़िंदगी मीलाद सुनने में
बिला जाने कि हिस्सा है तो कैसा और कितना
ये सब आसाँ नहीं था
गुलाब और इत्र से भारी फ़ज़ा में साँस लेना
देर तक आसाँ नहीं था
न आसाँ था समझने की अदाकारी भी करना
उस ज़बाँ को
जिस से मैं ना-आश्ना था और वो भी बा-अदब रह कर
बहुत भारी था बेले का वो गजरा
जो पहनाया गया था मुझ को अगली सफ़ में बैठाने से पहले
हाँ सज़ा जैसा था मेरा बैठना उस सफ़ में
जिस में एक भी बच्चा नहीं था
और जहाँ से दूर थीं सब चिलमनें
और उन से छनती रौनक़ें
ये सब क़ुर्बानियाँ दे कर अगर हिस्से की ख़्वाहिश है मुझे तो क्या ग़लत है
मिरे हिस्से की ख़्वाहिश पर हँसो मत
मिरा हिस्सा तो पक्का है अगर मैं सो भी जाऊँ
ख़ुदा को सब पता है
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