अपने तमाशे का टिकट
ये ख़्वाहिश तो
हमारे शहर के चिड़िया-घरों के शेर भी शायद नहीं करते
कि साथी शेर उन को देखने आएँ
टिकट ले कर तमाशे की तरह
तमाशा बन के ये जीने की मजबूरी
कहीं शर्मिंदगी की शक्ल में मुँह पर छपी रहती हैं उन के
मगर इंसान?
उस का बस नहीं चलता
कि सर के बल खड़े हो कर तवज्जोह खींच ले सब की
वही इंसाँ
जो ख़ुद को अशरफ़-ओ-अफ़ज़ल समझता है
अगर मुमकिन हो तो
अपने तमाशे के टिकट
ख़ुद अपने हाथों दूसरों को बेच सकता है
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