तवील रात भी आख़िर को ख़त्म होती है
'शरीफ़' हम न अँधेरों से मात खाएँगे
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बस्तियाँ तू ने ख़लाओं में बसाईं भी तो क्या
जो अपने सर पे सर-ए-शाख़-ए-आशियाँ गुज़री
फ़ज़ा-ए-सेहन-ए-गुलिस्ताँ है सोगवार अभी
अब किसी शाख़ पे हिलता नहीं पत्ता कोई
कितने नाज़ुक कितने ख़ुश-गुल फूलों से ख़ुश-रंग प्याले
गुलज़ार में वो रुत भी कभी आ के रहेगी
तलाश जिन की है वो दिन ज़रूर आएँगे
ग़ुनूदा राहों को तक तक के सोगवार न हो
तू समझता है तो ख़ुद तेरी नज़र गहरी नहीं
धड़कनें बंद-ए-तकल्लुफ़ से ज़रा आज़ाद कर