सरों पे ओढ़ के मज़दूर धूप की चादर
ख़ुद अपने सर पे उसे साएबाँ समझने लगे
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अपनी आँखों पर वो नींदों की रिदा ओढ़े हुए
पेड़ के नीचे ज़रा सी छाँव जो उस को मिली
जो अपनी चश्म-ए-तर से दिल का पारा छोड़ जाता है
हमारे जिस्म के अंदर भी कोई रहता है
हमारे सर हर इक इल्ज़ाम धर भी सकता है
ज़ुल्म करते हुए वो शख़्स लरज़ता ही नहीं
मिले हैं दर्द ही मुझ को मोहब्बतों के एवज़
वो डर के आगे निकल जाएगा अगर यूँही
हवा के दोश पे बादल की मुश्क ख़ाली है
पर्दा-ए-रुख़ क्या उठा हर-सू उजाले हो गए
सुकून-ए-क़ल्ब मयस्सर किसे जहान में है