पेड़ के नीचे ज़रा सी छाँव जो उस को मिली
सो गया मज़दूर तन पर बोरिया ओढ़े हुए
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हवा के दोश पे बादल की मुश्क ख़ाली है
अपनी आँखों पर वो नींदों की रिदा ओढ़े हुए
जो आँसुओं की ज़बाँ को मियाँ समझने लगे
पर्दा-ए-रुख़ क्या उठा हर-सू उजाले हो गए
जो अपनी चश्म-ए-तर से दिल का पारा छोड़ जाता है
पहुँच गया था वो कुछ इतना रौशनी के क़रीब
मिले हैं दर्द ही मुझ को मोहब्बतों के एवज़
हमारे सर हर इक इल्ज़ाम धर भी सकता है
सुकून-ए-क़ल्ब मयस्सर किसे जहान में है
गर दर-ए-हर्फ़-ए-सदाक़त ये नहीं था फिर क्यूँ
वो डर के आगे निकल जाएगा अगर यूँही