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ज़ुल्म करते हुए वो शख़्स लरज़ता ही नहीं - शारिब मौरान्वी कविता - Darsaal

ज़ुल्म करते हुए वो शख़्स लरज़ता ही नहीं

ज़ुल्म करते हुए वो शख़्स लरज़ता ही नहीं

जैसे क़हहार के मअ'नी वो समझता ही नहीं

जितना भी बाँट सको बाँट दो इस दौलत को

इल्म इक ऐसा ख़ज़ाना है जो घटता ही नहीं

हिन्दू मिलता है मुसलमान भी ईसाई भी

लेकिन इस दौर में इंसान तो मिलता ही नहीं

मेरा बच्चा भी अलग फ़िक्र का मालिक निकला

जो कभी नक़्श-ए-क़दम देख के चलता ही नहीं

इस क़दर सर्द-मिज़ाजी है मुसल्लत हम पर

कोई भी बात हो अब ख़ून उबलता ही नहीं

किस तरह उतरेगा आँगन में क़मर ख़ुशियों का

ग़म का सूरज कभी दीवार से ढलता ही नहीं

मिट नहीं सकता कभी दामन-ए-तारीख़ से दाग़

ख़ून-ए-मज़लूम कभी राएगाँ होता ही नहीं

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In Hindi By Famous Poet Sharib Mauranwi. is written by Sharib Mauranwi. Complete Poem in Hindi by Sharib Mauranwi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.