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गर दर-ए-हर्फ़-ए-सदाक़त ये नहीं था फिर क्यूँ - शारिब मौरान्वी कविता - Darsaal

गर दर-ए-हर्फ़-ए-सदाक़त ये नहीं था फिर क्यूँ

गर दर-ए-हर्फ़-ए-सदाक़त ये नहीं था फिर क्यूँ

तुम ने ताला मिरे होंटों पे लगाया फिर क्यूँ

लब पे लफ़्ज़ों के कँवल तुम ने सजाए थे अगर

तो तकल्लुम के जज़ीरों से किनारा फिर क्यूँ

माना क़ैदी से हुकूमत न डरेगी लेकिन

शा-राहों पे सलासिल का तमाशा फिर क्यूँ

चीख़ उट्ठोगे जो देखीं मिरी बंजर आँखें

शौक़ इतना था तो दरिया को उतारा फिर क्यूँ

तुम अगर मोरीद-ए-इल्ज़ाम नहीं थे तो तुम्हें

उस अदालत ने गुनहगार बनाया फिर क्यूँ

मस्लहत कोई तो दरपेश थी 'शारिब' वर्ना

उस ने तस्वीर पर ये रंग उभारा फिर क्यूँ

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In Hindi By Famous Poet Sharib Mauranwi. is written by Sharib Mauranwi. Complete Poem in Hindi by Sharib Mauranwi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.