शहर में कैसा ख़तर लगता है
शहर में कैसा ख़तर लगता है
अपने साए से भी डर लगता है
आज फिर दिल है दुआ पर माइल
बंद फिर बाब-ए-असर लगता है
कुछ वक़ार-ए-दर-ओ-दीवार नहीं
हो मकीं घर में तो घर लगता है
आशियाँ जिस में परिंदों के न हों
कितना तन्हा वो शजर लगता है
आसमाँ कितना झुक आया है 'शरीफ़'
सर उठाता हूँ तो सर लगता है
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