कुछ भी हो उस से जुदाई का सबब घर जाओ
कुछ भी हो उस से जुदाई का सबब घर जाओ
ढल चुकी शाम अंधेरा हुआ अब घर जाओ
शब में घुस आते हैं आसेब मिरे शहरों में
ताक में रहती है ये वहशत-ए-शब घर जाओ
लोग हक़ माँगने पहुँचे थे शहंशाह के पास
नोक-ए-ख़ंजर पे मिला हुक्म के सब घर जाओ
नहीं ये ज़ख़्म क़बीले के लिए बाइ'स-ए-नाज़
क़त्ल हो लो किसी तलवार से तब घर जाओ
उन से वाबस्ता हैं बचपन की हज़ारों यादें
चूम लेना दर-ओ-दीवार को जब घर जाओ
गाँव में कोई तुम्हारे लिए बेकल है 'शरीफ़'
जाने कब तुम को ख़याल आएगा कब घर जाओ
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