तेरी आँखें जिसे चाहें उसे अपना कर लें
काश ऐसा ही सिखा दें कोई अफ़्सूँ मुझ को
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पारसा बन के सू-ए-मय-ख़ाना
अल्लाह अल्लाह ख़ुसूसिय्यत-ए-ज़ात-ए-हसनैन
क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
तसव्वुर ने तिरे आबाद जब से घर किया मेरा
तमाम चारागरों से तो मिल चुका है जवाब
इंतिहा-ए-मअरिफ़त से ऐ 'शरफ़'
दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
उस ने माँगा जो दिल दिए ही बनी
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
एक को एक नहीं रश्क से मरने देता
जिस को चाहा तू ने उस को मिल गया