तसव्वुर ने तिरे आबाद जब से घर किया मेरा
निकलता ही नहीं दिन रात अपने घर में रहता है
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जी में आता है कि फूलों की उड़ा दूँ ख़ुशबू
दिल में मिरे जिगर में मिरे आँख में मिरी
उश्शाक़ के आगे न लड़ा ग़ैरों से आँखें
दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
आलम-ए-इश्क़ में अल्लाह-रे नज़र की वुसअत
पामालियों का ज़ीना है अर्श से भी ऊँचा
पारसा बन के सू-ए-मय-ख़ाना
उस ने माँगा जो दिल दिए ही बनी
जिस को चाहा तू ने उस को मिल गया
इंतिहा-ए-मअरिफ़त से ऐ 'शरफ़'
ज़र्फ़ तो देखिए मेरे दिल-ए-शैदाई का