तमाम चारागरों से तो मिल चुका है जवाब
तुम्हें भी दर्द-ए-मोहब्बत सुनाए देते हैं
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तसव्वुर ने तिरे आबाद जब से घर किया मेरा
शैख़ कुछ अपने-आप को समझें
जिस को चाहा तू ने उस को मिल गया
उस ने माँगा जो दिल दिए ही बनी
दुख़्त-ए-रज़ और तू कहाँ मिलती
अब तो मय-ख़ानों से भी कुछ बढ़ कर
जी में आता है कि फूलों की उड़ा दूँ ख़ुशबू
इंतिहा-ए-मअरिफ़त से ऐ 'शरफ़'
दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
अल्लाह अल्लाह ख़ुसूसिय्यत-ए-ज़ात-ए-हसनैन