क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
अंधा है तो देखता नहीं है
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हैरत में हूँ इलाही क्यूँ-कर ये ख़त्म होगा
तसव्वुर ने तिरे आबाद जब से घर किया मेरा
दिल में मिरे जिगर में मिरे आँख में मिरी
इस पर्दे में ये हुस्न का आलम है इलाही
आलम-ए-इश्क़ में अल्लाह-रे नज़र की वुसअत
जिस को चाहा तू ने उस को मिल गया
पारसा बन के सू-ए-मय-ख़ाना
दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
अब तो मय-ख़ानों से भी कुछ बढ़ कर
जी में आता है कि फूलों की उड़ा दूँ ख़ुशबू
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
तेरी आँखें जिसे चाहें उसे अपना कर लें