दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
क्या तुम्हीं हो पाक-दामन पारसा मैं भी तो हूँ
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अल्लाह अल्लाह ख़ुसूसिय्यत-ए-ज़ात-ए-हसनैन
शैख़ कुछ अपने-आप को समझें
पामालियों का ज़ीना है अर्श से भी ऊँचा
इस पर्दे में ये हुस्न का आलम है इलाही
जिस को चाहा तू ने उस को मिल गया
दिल में मिरे जिगर में मिरे आँख में मिरी
दुख़्त-ए-रज़ और तू कहाँ मिलती
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
इंतिहा-ए-मअरिफ़त से ऐ 'शरफ़'
एक को एक नहीं रश्क से मरने देता
जी में आता है कि फूलों की उड़ा दूँ ख़ुशबू
हैरत में हूँ इलाही क्यूँ-कर ये ख़त्म होगा