अब तो मय-ख़ानों से भी कुछ बढ़ कर
जाम चलते हैं ख़ानक़ाहों में
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पारसा बन के सू-ए-मय-ख़ाना
जी में आता है कि फूलों की उड़ा दूँ ख़ुशबू
इस पर्दे में ये हुस्न का आलम है इलाही
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
ज़र्फ़ तो देखिए मेरे दिल-ए-शैदाई का
तेरी आँखें जिसे चाहें उसे अपना कर लें
दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
तमाम चारागरों से तो मिल चुका है जवाब
हज़रत-ए-नासेह भी मय पीने लगे
दुख़्त-ए-रज़ और तू कहाँ मिलती
क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
उस ने माँगा जो दिल दिए ही बनी