आलम-ए-इश्क़ में अल्लाह-रे नज़र की वुसअत
नुक़्ता-ए-वहम हुआ गुम्बद-ए-गर्दूं मुझ को
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इंतिहा-ए-मअरिफ़त से ऐ 'शरफ़'
एक को एक नहीं रश्क से मरने देता
हैरत में हूँ इलाही क्यूँ-कर ये ख़त्म होगा
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
जी में आता है कि फूलों की उड़ा दूँ ख़ुशबू
अब तो मय-ख़ानों से भी कुछ बढ़ कर
क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
तेरी आँखें जिसे चाहें उसे अपना कर लें
दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
उश्शाक़ के आगे न लड़ा ग़ैरों से आँखें
शैख़ कुछ अपने-आप को समझें
दुख़्त-ए-रज़ और तू कहाँ मिलती