पारसा बन के सू-ए-मय-ख़ाना
दिल में मिरे जिगर में मिरे आँख में मिरी
उश्शाक़ के आगे न लड़ा ग़ैरों से आँखें
जिस को चाहा तू ने उस को मिल गया
एक को एक नहीं रश्क से मरने देता
अल्लाह अल्लाह ख़ुसूसिय्यत-ए-ज़ात-ए-हसनैन
तमाम चारागरों से तो मिल चुका है जवाब
इस पर्दे में ये हुस्न का आलम है इलाही
दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
दुख़्त-ए-रज़ और तू कहाँ मिलती
क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
उस ने माँगा जो दिल दिए ही बनी