अल्लाह अल्लाह ख़ुसूसिय्यत-ए-ज़ात-ए-हसनैन
शैख़ कुछ अपने-आप को समझें
इंतिहा-ए-मअरिफ़त से ऐ 'शरफ़'
आलम-ए-इश्क़ में अल्लाह-रे नज़र की वुसअत
एक को एक नहीं रश्क से मरने देता
जिस को चाहा तू ने उस को मिल गया
दुख़्त-ए-रज़ और तू कहाँ मिलती
तेरी आँखें जिसे चाहें उसे अपना कर लें
कम-सिनी जिन की हमें याद है और कल की ही बात
क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
हैरत में हूँ इलाही क्यूँ-कर ये ख़त्म होगा
तसव्वुर ने तिरे आबाद जब से घर किया मेरा