सजे हुए बाम-ओ-दर से आगे की सोचता हूँ
मैं घर बना कर भी घर से आगे की सोचता हूँ
कहीं अँधेरे में जा बसूँगा चराग़ बन कर
मैं तेरे शम्स-ओ-क़मर से आगे की सोचता हूँ
तुझे समुंदर से कुछ नहीं और लेना देना
मगर मैं लाल-ओ-गुहर से आगे की सोचता हूँ
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वो अक्स मुझ में जुनूँ-साज़ रक़्स करने लगा
कोई वज्द है न धमाल है तिरे इश्क़ में
ख़ुश-कुन ख़बर के धोके में रक्खा गया मुझे
जहान-ए-ख़्वाब-ए-मेहरबाँ की ख़ैर हो
जुनूब ओ मश्रिक ओ मग़रिब तिरे शुमाल तिरा
वक़्त हर बार बदलता हुआ रह जाता है
इक नींद की वादी से गुज़ारा गया मुझ को
दिनों से कैसे शबों में ढलते हैं दिन हमारे
सदियों के तआ'क़ुब में लम्हे नहीं जाएँगे