ख़ुश-कुन ख़बर के धोके में रक्खा गया मुझे
शब भर सहर के धोके में रखा गया मुझे
उड़ने का इख़्तियार कहाँ मेरे पास था
बस बाल-ओ-पर के धोके में रक्खा गया मुझे
घर और घर के ख़्वाब से हिजरत के बा'द भी
क्यूँ बाम-ओ-दर के धोके में रक्खा गया मुझे
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कोई वज्द है न धमाल है तिरे इश्क़ में
इक नींद की वादी से गुज़ारा गया मुझ को
वक़्त हर बार बदलता हुआ रह जाता है
वो अक्स मुझ में जुनूँ-साज़ रक़्स करने लगा
जहान-ए-ख़्वाब-ए-मेहरबाँ की ख़ैर हो
सदियों के तआ'क़ुब में लम्हे नहीं जाएँगे
सजे हुए बाम-ओ-दर से आगे की सोचता हूँ
दिनों से कैसे शबों में ढलते हैं दिन हमारे
जुनूब ओ मश्रिक ओ मग़रिब तिरे शुमाल तिरा