ग़म दिए हैं तो मसर्रत के गुहर भी देना
ग़म दिए हैं तो मसर्रत के गुहर भी देना
ऐ ख़ुदा तू मुझे जीने का हुनर भी देना
हाकिम-ए-वक़्त ये हिजरत मुझे मंज़ूर मगर
दम-ए-रुख़्सत मुझे सामान-ए-सफ़र भी देना
ऐ शब-ओ-रोज़ के मालिक मुझे इस दुनिया में
लैलतुल-क़द्र की मानिंद सहर भी देना
सुन ज़रा ग़ौर से सुन ऐ शजर-ए-साया-फ़गन
जब तिरे साए में पहुँचूँ तो समर भी देना
लफ़्ज़ निकलें जो ज़बाँ से तो दिलों तक पहुँचें
मेरी तक़रीर में कुछ ऐसा असर भी देना
तेरे अल्ताफ़-ओ-करम की है बहर-सू शोहरत
माल-ओ-ज़र देगा ही तो लाल-ओ-गुहर भी देना
तू जो शमशीर-ब-कफ़ हो तो मैं सर पेश करूँ
जो हैं दिल वाले उन्हें आता है सर भी देना
बख़्शने वाले ज़माने को जमाल-ए-हर-रंग
जो तुझे देख सके ऐसी नज़र भी देना
ले चला मैं तिरी जन्नत से बयाबाँ की तरफ़
सर छुपाने को वहाँ तू मुझे घर भी देना
हर्फ़ आ जाए न तुझ पर कहीं कम-ज़र्फ़ी का
दामन-ए-'शम्स' को तू दीदा-ए-तर भी देना
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